गुरुवार, 8 अक्तूबर 2020

सत्यार्थ प्रकाश - स्वामी दयानन्द सरस्वती

 स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा रचित सत्यार्थ प्रकाश का प्रथम संस्करण 1975 और दूसरा संस्करण 1882 में प्रकाशित हुआ। 

स्वामी दयानन्द के शब्दों में इस ग्रन्थ की रचना का मुख्य प्रयोजन सत्य-सत्य अर्थ का प्रकाश करना है, अर्थात् जो सत्य है उस को सत्य और जो मिथ्या है उस को मिथ्या ही प्रतिपादन करना सत्य अर्थ का प्रकाश समझा है। वह सत्य नहीं कहा ता जो सत्य के स्थान में असत्य और असत्य के स्थान में सत्य का प्रकाश किया जा य। किन्तु जो पदार्थ जैसा है, उसको वैसा ही कहना , लिखना और मानना सत्य कहाता है। जो मनुष्य पक्षपाती होता है, वह अपने असत्य को भी सत्य और दूसरे विरोधी मतवाले के सत्य को भी असत्य सिद्ध करने में प्रवृत्त हो ता है, इसलिए वह सत्य मत को प्राप्त नहीं हो सकता। इसी लिए विद्वान् आप्तों का यही मुख्य काम है कि उपदेश वा लेख द्वा रा सब मनुष्यों के सा मने सत्याऽसत्य का स्वरूप समर्पित कर दें, पश्चात् वे स्वयम् अपना हिताहित समझ कर सत्यार्थ का ग्रहण और मिथ्यार्थ का परि त्याग करके सदा आनन्द में रहें।

इस ग्रन्थ में स्वामी जी ने वैदिक धर्म की स्थापना करने और हिन्दू धर्म में प्रचलित अनेक अन्धविश्वासों तथा कुरीतियों के साथ-साथ ईसाई, इस्लाम एवं अन्य कई पन्थों व मतों का खण्डन भी किया है।

यह ग्रन्थ 14 चौदह समुल्लास अर्थात् चौदह विभागों में रचा गया है, जो निम्न लिखित है --

पूर्वार्द्ध

  1. प्रथम समुल्लास में ईश्वर के ओंकाराऽऽदि ना मों की व्याख्या।
  2. द्वितीय समुल्लास में सन्तानों की शिक्षा।
  3. तृती य समुल्लास में ब्रह्मचर्य, पठन-पा ठनव्यवस्था, सत्यासत्य ग्रन्थों के नाम और पढ़ने-पढ़ाने की रीति।
  4. चतुर्थ समुल्लास में विवाह और गृहा श्रम का व्यवहार।
  5. पंचम समुल्लास में वानप्रस्थ और संन्यासा श्रम का विधि।
  6. छठे समुल्लास में राजधर्म।
  7. सप्तम समुल्लास में वेदेश्वर-विषय।
  8. अष्टम समुल्लास में जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय।
  9. नवम समुल्लास में विद्या, अविद्या, बन्ध और मोक्ष की व्याख्या।
  10. दशवें समुल्लास में आचार, अनाचार और भक्ष्याभक्ष्य विषय।

उत्तरार्द्ध

  1. एकादश समुल्लास में आर्य्यावर्त्तीय मत मतान्तर का खण्डन मण्डन विषय।
  2. द्वादश समुल्लास में चारवाक, बौद्ध और जैनमत का विषय।
  3. त्रयोदश समुल्लास में ईसा ई मत का विषय।
  4. चौदहवें समुल्लास में मुसलमानों के मत का विषय।


इसमें 10 दश समुल्लास पूर्वार्द्ध और 4 चार उत्तरार्द्ध में हैं। अन्त्य के दो समुल्लास और पश्चात् स्वसिद्धान्त किसी कारण से प्रथम नहीं छप सके, वे द्वितीय संस्करण छपे हैं। और चौदह समुल्लासों के अन्त में आर्यों के सनातन वेदविहित मत की विशेषतः व्याख्या लिखी है, जिसको स्वामी जी यथावत् मानते है।

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