रविवार, 4 अक्तूबर 2020

हिन्दू धर्म पर निबंध

  विश्व धर्म महासभा, शिकागो, 19 सितंबर 1893

प्रागैतिहासिक युग से चले आने वाले केवल तीन ही धर्म आज संसार में विद्यमान हैं- हिंदू धर्म, पारसी धर्म और यहूदी धर्म। उनको अनेकानेक प्रचंड आघात सहने पड़े हैं, किंतु फिर भी जीवित बने रहकर वे अपनी आंतरिक शक्‍ति का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। पर जहाँ हम यह देखते हैं कि यहूदी धर्म ईसाई धर्म को आत्मसात् नहीं कर सका, वरन् अपनी सर्व-विजयिनी दुहिता, ईसाई धर्म द्वारा अपने जन्म स्थान से निर्वासित कर दिया गया, और केवल मुट्ठी भर पारसी ही अपने महान् धर्म की गाथा गाने के लिए अब शेष बचे हैं,  वहाँ भारत में एक के बाद एक न जाने कितने सम्प्रदायों का उदय हुआ जिन्होंने वैदिक धर्म की जड़ें हिला दी; किंतु भयंकर भूकंप के समय समुद्रतट के जल-लहरों के समान, हजार गुना बलशाली होकर सर्वग्रासी आप्लावन के रूप में पुनः लौटने के लिए, वह कुछ समय के लिए पीछे हट गया; और जब यह सारा कोलाहल शांत हो गया, तब इन समस्त धर्म-सम्प्रदायों को उनकी धर्म-माता – हिंदू धर्म – की विराट् काया ने चूसकर आत्मसात कर लिया और अपने में पचा डाला।

वेदांत दर्शन की ऊँची आध्यात्मिक उड़ानों से लेकर, आधुनिक विज्ञान के नवीनतम आविष्कार जिसकी केवल प्रतिध्वनि मात्र प्रतीत होते हैं, मूर्तिपूजा के निम्नस्तरीय विचारों एवं अनेकानेक पौराणिक दंतकथाओं तक, और बौद्धों के अज्ञेयवाद तथा जैनों के निरीश्‍वरवाद – इनमें से प्रत्येक के लिए हिंदू धर्म में स्थान हैं।

तब यह प्रश्‍न उठता हैं कि वह कौन सा एक बिंदु हैं, जहाँ पर इतने भिन्न-भिन्न प्रकार के विरोधी विचार और मत आपस में मिलते हैं? वह कौन सा एक आधार हैं जिस पर ये प्रचंड विरोधाभास आश्रित हैं?  इसी प्रश्न का उत्तर देने का अब मैं प्रयत्न करूँगा।

हिंदू जाति ने अपना धर्म श्रुति – वेदों से प्राप्त किया हैं। उसकी धारणा हैं कि वेद अनादि और अनंत हैं। श्रोताओं को संभव हैं, यह बात हास्यास्पद लगे कि कोई पुस्तक अनादि और अनंत कैसे हो सकती हैं। किंतु वेदों का अर्थ कोई पुस्तक हैं ही नहीं। वेदों का अर्थ हैं, भिन्न-भिन्न कालों में भिन्न-भिन्न व्यक्तियों द्वारा आविष्कृत आध्यात्मिक सत्यों का संचित कोष। जिस प्रकार गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत मनुष्यों के पता लगने से पूर्व भी अपना काम करता चला आया था और आज यदि मनुष्य जाति उसे भूल जाए, तो भी वह नियम अपना काम करता रहेगा, ठीक वही बात आध्यात्मिक जगत का शासन करने वाले नियमों के संबंध में भी हैं। एक आत्मा का दूसरी आत्मा के साथ और जीवात्मा का आत्माओं के परम पिता के साथ जो नैतिक तथा आध्यात्मिक संबंध हैं, वे उनके आविष्कार के पूर्व भी थे और हम यदि उन्हें भूल भी जाए, तो बने रहेंगे।

इन नियमों या सत्यों का आविष्कार करने वाले ऋषि कहलाते हैं और हम उनको पूर्णत्व तक पहुँची हुई आत्मा मानकर सम्मान देते हैं। श्रोताओं को यह बतलाते हुए मुझे हर्ष होता हैं कि इन महानतम ऋषियों में कुछ स्त्रियाँ भी थीं।

यहाँ यह कहा जा सकता हैं कि ये नियम, नियम के रूप में अनंत भले ही हैं, पर इनका आदि तो अवश्य ही होना चाहिए। वेद हमें यह सिखाते हैं कि सृष्‍टि का न आदि हैं न अंत। विज्ञान ने हमें सिद्ध कर दिखाया हैं कि समग्र विश्‍व की सारी ऊर्जा-समष्‍टि का परिमाण सदा एक सा रहता हैं। तो फिर, यदि ऐसा कोई समय था, जब कि किसी वस्तु का अस्तित्व ही नहीं था, उस समय यह संपूर्ण ऊर्जा कहाँ थी?  कोई कहता हैं कि ईश्‍वर में ही वह सब अव्यक्त रूप में निहित थी। तब तो ईश्वर कभी अव्यक्त और कभी व्यक्त हैं;  इससे तो वह विकारशील हो जाएगा। प्रत्येक विकारशील पदार्थ यौगिक होता हैं और हर यौगिक पदार्थ में वह परिवर्तन अवश्‍वंभावी हैं, जिसे हम विनाश कहते हैं। इस तरह तो ईश्‍वर की मृत्यु हो जाएगी, जो अनर्गल हैं। अतः ऐसा समय कभी नहीं था, जब यह सृष्‍टि नहीं थी।

मैं एक उपमा दूँ; – स्रष्‍टा और सृष्‍टि मानो दो रेखाएँ हैं, जिनका न आदि हैं, न अंत, और जो समांतर चलती हैं। ईश्‍वर नित्य क्रियाशील विधाता हैं, जिसकी शक्‍ति से प्रलय-पयोधि में से नित्यशः एक के बाद एक ब्रह्मांड का सृजन होता हैं, वे कुछ काल तक गतिमान रहते हैं, और तत्पश्‍चात् वे पुनः विनष्ट कर दिये जाते हैं। 

'सूर्याचंद्रमसौ धाता यथापूर्वकल्पयत्' अर्थात् इस सूर्य और इस चंद्रमा को विधाता ने पूर्व कल्पों के सूर्य और चंद्रमा के समान निर्मित किया हैं – इस वाक्य का पाठ हिंदू बालक प्रतिदिन करता हैं।

यहाँ पर मैं  खड़ा हूँ और अपनी आँखें बंद करके यदि अपने अस्तित्व – 'मैं', 'मैं', 'मैं' को समझने का प्रयत्न करूँ, तो मुझमें किस भाव का उदय होता हैं? इस भाव का कि मैं शरीर हूँ। तो क्या मैं भौतिक पदार्थों के संघात के सिवा और कुछ नहीं हूँ?  वेदों की घोषणा हैं – 'नहीं, मैं शरीर में रहने वाली आत्मा हूँ, मैं शरीर नहीं हूँ। शरीर मर जाएगा, पर मैं नहीं मरूँगा। मैं इस शरीर में विद्यमान हूँ और इस शरीर का पतन होगा, तब भी मैं विद्यमान रहूँगा ही। मेरा एक अतीत भी हैं।' 

आत्मा की सृष्टि नहीं हुई हैं, क्योंकि सृष्टि का अर्थ हैं, भिन्न-भिन्न द्रव्यों का संघात, और इस संघात का भविष्य में विघटन अवश्यंभावी हैं। अतएव यदि आत्मा का सृजन हुआ, तो उसकी मृत्यु भी होनी चाहिए। कुछ लोग जन्म से ही सुखी होता हैं, पूर्ण स्वास्थ्य का आनंद भोगते हैं, उन्हें सुंदर शरीर, उत्साहपूर्ण मन और सभी आवश्यक सामग्रियाँ प्राप्त रहती हैं। दूसरे कुछ लोग जन्म से ही दुःखी होते हैं, किसी के हाथ या पाँव नहीं होते, तो कोई मूर्ख होते हैं, और येन केन प्रकारेण अपने दुःखमय जीवन के दिन काटते हैं। ऐसा क्यों?  यदि सभी एक ही न्यायी और दयालु ईश्‍वर ने उत्पन्न किये हों, तो फिर उसने एक को सुखी और दूसरे को दुःखी क्यों बनाया? ईश्‍वर ऐसा पक्षपाती क्यों हैं?  फिर ऐसा मानने से बात नहीं सुधर सकती कि जो वर्तमान जीवन में दुःखी हैं, भावी जीवन में पूर्ण सुखी रहेंगे। न्यायी और दयालु ईश्‍वर के राज्य में मनुष्य इस जीवन मे भी दुःखी क्यों रहे?

दूसरी बात यह हैं कि सृष्‍टि-उत्पादक ईश्‍वर को मान्यता देनेवाला सिद्धांत वैषम्य की कोई व्याख्या नहीं करता, बल्कि वह तो केवल एक सर्वशक्‍तिमान् पुरुष का निष्‍ठुर आदेश ही प्रकट करता हैं। अतएव इस जन्म के पूर्व ऐसे कारण होने ही चाहिए, जिनके फलस्वरुप मनुष्य इस जन्म में सुखी या दुःखी हुआ करते हैं। और ये कारण हैं, उसके ही पुर्वानुष्‍ठित कर्म।

क्या मनुष्य के शरीर और मन की सारी प्रवृत्तियों की व्याख्या उत्तराधिकार से प्राप्त क्षमता द्वारा नहीं हो सकती? यहाँ जड़ और चैतन्य (मन), सत्ता की दो समानांतर रेखाएँ हैं। यदि जड़ और जड़ के समस्त रूपांतर ही, जो कुछ यहाँ उसके कारण सिद्ध हो सकते, तो फिर आत्मा के अस्तित्व को मानने की कोई आवश्यकता ही न रह जाती। पर यह सिद्ध नहीं किया जा सकता कि चैतन्य (विचार) का विकास जड़ से हुआ हैं, और यदि कोई दार्शनिक अद्वैतवाद अनिवार्य हैं, तो आध्यात्मिक अद्वैतवाद निश्‍चय ही तर्कसंगत हैं और भौतिक अद्वैतवाद से किसी भी प्रकार कम वाँछनीय नहीं; परंतु यहाँ इन दोनों की आवश्यकता नहीं हैं।

हम यह अस्वीकार नहीं कर सकते कि शरीर कुछ प्रवृत्तियों को आनुवंशिकता से प्राप्त करता हैं; किंतु ऐसी प्रवृत्तियों का अर्थ केवल शारीरिक रूपाकृति हैं, जिसके माध्यम से केवल एक विशेष मन एक विशेष प्रकार से काम कर सकता हैं। आत्मा की कुछ ऐसी विशेष प्रवृत्तियाँ होती हैं, जिसकी उत्पत्ति अतीत के कर्म से होती हैं। एक विशेष प्रवृत्तिवाली जीवात्मा 'योग्यं योग्येन युज्यते' इस नियमानुसार उसी शरीर में जन्म ग्रहण करती हैं, जो उस प्रवृत्ति के प्रकट करने के लिए सब से उपयुक्त आधार हो। यह विज्ञानसंगत हैं, क्योंकि विज्ञान हर प्रवृत्ति की व्याख्या आदत से करना चाहता हैं, और आदत आवृत्तियों से बनती हैं। अतएव नवजात जीवात्मा की नैसर्गिक आदतों की व्याख्या के लिए आवृत्तियाँ अनिवार्य हो जाती हैं। और चूंकि वे प्रस्तुत जीवन में प्राप्त नहीं होती, अतः वे पिछले जीवनों से ही आयी होंगी।

एक और दृष्टिकोण हैं। ये सभी बातें यदि स्वयंसिद्ध भी मान लें, तो में अपने पूर्व जन्म की कोई बात स्मरण क्यों नहीं रख पाता?  इसका समाधान सरल हैं। मैं अभी अंग्रेजी बोल रहा हूँ। वह मेरी मातृ भाषा नहीं हैं। वस्तुतः इस समय मेरी मातृभाषा का कोई भी शब्द मेरे चित्त में उपस्थित नहीं हैं, पर उन शब्दों को सामने  लाने का थोड़ा प्रयत्‍न करते ही वे मन में उमड़ आते हैं। इससे यही सिद्ध होता हैं कि चेतना मानस-सागर की सतह मात्र हैं और भीतर, उसकी गहराई में, हमारी समस्त अनुभवराशि संचित हैं। केवल प्रयत्न और उद्यम कीजिए, वे सब ऊपर उठ आएँगे। और आप अपने पूर्व जन्मों का भी ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे।

यह प्रत्यक्ष एवं प्रतिपाद्य प्रमाण हैं। सत्य-साधन ही किसी परिकल्पना का पूर्ण प्रमाण होता हैं, और ऋषिगण यहाँ समस्त संसार को एक चुनौती दे रहे हैं। हमने उस रहस्य का पता लगा लिया हैं, जिससे स्मृति-सागर की गम्भीरतम गहराई तक मंथन किया जा सकता हैं – उसका प्रयोग कीजिए और आप अपने पूर्व जन्मों का सम्पूर्ण संस्मृति प्राप्त कर लेंगे।

अतएव हिंदू का यह विश्‍वास हैं कि वह आत्मा हैं। 'उसको शस्‍त्र काट नहीं सकते, अग्नि दग्ध नहीं कर सकती, जल भिगो नहीं सकता और वायु सुखा नहीं सकती।' [1] 

हिंदुओं की यह धारणा हैं कि आत्मा एक ऐसा वृत्त है जिसकी कोई परिधि नहीं हैं, किंतु जिसका केंद्र शरीर में अवस्थित हैं;  और मृत्यु का अर्थ हैं, इस केंद्र का एक शरीर से दूसरे शरीर में स्थानांतरित  हो जाना। यह आत्मा जड़ की उपाधियों से बद्ध नहीं हैं। वह स्वरूपतः नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्‍तस्वभाव है। परंतु किसी कारण से वह अपने को जड़ से बँधी हुई पाती हैं, और अपने को जड़ ही समझती हैं।

अब दूसरा प्रश्‍न हैं कि यह विशुद्ध, पूर्ण और विमुक्‍त आत्मा इस प्रकार जड़ का दासत्व क्यों करती हैं? स्वयं पूर्ण होते हुए भी इस आत्मा को अपूर्ण होने का  भ्रम कैसे हो जाता हैं? हमें यह बताया जाता हैं कि हिंदू लोग इस प्रश्‍न से कतरा जाते हैं और कह देते के ऐसा प्रश्‍न हो ही नहीं सकता। कुछ विचारक पूर्णप्राय सत्ताओं की कल्पना कर लेते हैं और इस रिक्‍त को भरने के लिए बड़े-बड़े वैज्ञानिक नामों का प्रयोग करते हैं। परंतु नाम दे देना व्याख्या नहीं हैं। प्रश्‍न ज्यों का त्यों ही बना रहता हैं। पूर्ण ब्रह्म पूर्णप्राय अथवा अपूर्ण कैसे हो सकता हैं;  शुद्ध, निरपेक्ष ब्रह्म अपने स्वभाव को सूक्ष्मातिसूक्ष्म कण भर भी परिवर्तित कैसे कर सकता हैं? पर हिंदू ईमानदार हैं। वह मिथ्या तर्क का सहारा नहीं लेना चाहता। पुरुषोचित रूप में इस प्रश्‍न का सामना करने का साहस वह रखता हैं, और इस प्रश्‍न का उत्तर  देता हैं, "मैं नहीं जानता। मैं नहीं जानता कि पूर्ण आत्मा अपने को अपूर्ण कैसे समझने लगी, जड़-पदार्थों के संयोग से अपने को जड़नियमाधीन कैसे मानने लगी।" 

पर इस सब के बावजूद तथ्य जो हैं, वही रहेगा। यह सभी की चेतना का एक तथ्य हैं कि प्रत्येक व्यक्‍ति अपने को शरीर मानता हैं। हिंदू इस बात की व्याख्या करने का प्रयत्‍न नहीं करता कि मनुष्य अपने को शरीर क्यों समझता हैं। ' यह ईश्‍वर की इच्छा है', यह उत्तर कोई समाधान नहीं हैं। यह उत्तर हिंदू के 'मैं नहीं जानता' के सिवा और कुछ नहीं हैं।

अतएव मनुष्य की आत्मा अनादि और अमर हैं, पूर्ण और अनंत हैं, और मृत्यु का अर्थ हैं – एक शरीर से दूसरे शरीर में केवल केंद्र-परिवर्तन। वर्तमान अवस्था हमारे पूर्वानुष्‍ठित कर्मों द्वारा निश्‍चित होती हैं और भविष्य, वर्तमान कर्मों द्वारा। आत्मा जन्म और मृत्यु के चक्र में लगातार घूमती हुई कभी ऊपर विकास करती हैं, कभी प्रत्यागमन करती हैं। पर यहाँ एक दूसरा प्रश्‍न उठता हैं – क्या मनुष्य प्रचंड तूफान में ग्रस्त वह छोटी सी नौका हैं, जो एक क्षण किसी वेगवान तरंग के फेनिल शिखर पर चढ़ जाती हैं और दूसरे क्षण भयानक गर्त में नीचे ढकेल दी जाती हैं, अपने शुभ और अशुभ कर्मों की दया पर केवल इधर-उधर भटकती फिरती हैं; क्या वह कार्य-कारण की सततप्रवाही, निर्मम, भीषण तथा गर्जनशील धारा में पड़ा हुआ अशक्‍त, असहाय भग्न पोत हैं, क्या वह उस कारणता के चक्र के नीचे पड़ा हुआ एक क्षुद्र शलभ हैं, जो विधवा के आँसुओं तथा अनाथ बालक की आहों की तनिक भी चिंता न करते हुए, अपने मार्ग में आनेवाली सभी वस्तुओं को कुचल डालता हैं ? इस प्रकार के विचार से अंतःकरण काँप उठता हैं, पर यही प्रकृति  का नियम हैं। तो फिर क्या कोई आशा ही नहीं हैं? क्या इससे बचने का कोई मार्ग नहीं हैं?  – यही करुण पुकार निराशाविह्‍वल हृदय  के अंतस्तल से उपर उठी और उस करुणामय के सिंहासन तक जा पहुँची। वहाँ से आशा तथा सांत्वना की वाणी निकली और उसने एक वैदिक ऋषि को अंतःस्फूर्ति प्रदान की, और उसने संसार के सामने खड़े होकर तूर्य-स्वर में इस आनंद-संदेश की घोषणा की: –

'हे अमृत के पुत्रों ! सुनो! हे दिव्यधामवासी देवगण!! तुम भी सुनो! मैंने उस अनादि, पुरातन पुरुष को प्राप्त कर लिया हैं, तो समस्त अज्ञान-अंधकार और माया से परे है। केवल उस पुरुष को जानकर ही तुम मृत्यु के चक्र से छूट सकते हो। दूसरा कोई पथ नहीं।' – श्‍वेताश्‍वतरोपनिषद् ॥२.५, ३-८॥ 

'अमृत के पुत्रो ' – कैसा मधुर और आशाजनक संबोधन हैं यह! बंधुओ!  इसी मधुर नाम - अमृत के अधिकारी से - आपको संबोधित करूँ, आप इसकी आज्ञा मुझे दे। निश्‍चय ही हिंदू आपको पापी कहना अस्वीकार करता हैं। आप ईश्‍वर की संतान हैं, अमर आनंद के भागी हैं, पवित्र और पूर्ण आत्मा हैं, आप इस मर्त्यभूमि पर देवता हैं। आप भला पापी? मनुष्य को पापी कहना ही पाप हैं, वह मानव स्वरूप पर घोर लांछन हैं। आप उठें ! हे सिंहों! आएँ, और इस मिथ्या भ्रम को झटक कर दूर फेंक दें की आप भेड़ हैं। आप हैं आत्मा अमर, आत्मा मुक्त, आनंदमय और नित्य! आप जड़ नहीं हैं, आप शरीर नहीं हैं; जड़ तो आपका दास हैं, न कि आप हैं जड़ के दास।

अतः वेद ऐसी घोषणा नहीं करते कि यह सृष्‍टि-व्यापार कतिपय निर्मम विधानों का संघात हैं, और न यह कि वह कार्य-कारण की अनंत कारा हैं; वरन् वे यह घोषित करते हैं कि इन सब प्राकृतिक नियमों के मूल में, जड़तत्त्व और शक्ति के प्रत्येक अणु-परमाणु में ओतप्रोत वही एक विराजमान हैं, 'जिसके आदेश से वायु चलती हैं, अग्नि दहकती हैं, बादल बरसते हैं और मृत्यु पृथ्वी पर नाचती हैं।'  – कठोपनिषद् ॥२.३.३॥

और उस पुरुषत्व का स्वरूप क्या हैं ?

वह सर्वत्र हैं, शुद्ध, निराकार, सर्वशक्‍तिमान् हैं, सब पर उसकी पूर्ण दया हैं। 'तू हमारा पिता हैं, तू हमारी माता हैं, तू हमारा परम प्रेमास्पद सखा हैं, तू ही सभी शक्‍तियों का मूल हैं; हमें शक्‍ति दे। तू ही इन अखिल भुवनों का भार वहन करने वाला हैं;  तू मुझे इस जीवन के क्षुद्र भार को वहन करने में सहायता दे। वैदिक ऋषियों ने यही गाया हैं। हम उसकी पूजा किस प्रकार करें? प्रेम के द्वारा। 'ऐहिक तथा पारत्रिक समस्त प्रिय वस्तुओं से भी अधिक प्रिय जानकर उस परम प्रेमास्पद की पूजा करनी चाहिए।' 

वेद हमें प्रेम के संबंध में इसी प्रकार की शिक्षा देते हैं। अब देखें कि श्रीकृष्ण ने, जिन्हें हिंदू लोग पृथ्वी पर ईश्‍वर का पूर्णावतार मानते हैं, इस प्रेम के सिद्धांत का पूर्ण विकास किस प्रकार किया हैं और हमें क्या उपदेश दिया हैं।

उन्होंने कहा हैं कि मनुष्य को इस संसार में पद्मपत्र की तरह रहना चाहिए। पद्मपत्र जैसे पानी में रहकर भी उससे नहीं भीगता, उसी प्रकार मनुष्य को भी संसार में रहना चाहिए – उसका हृदय ईश्‍वर में लगा रहे और हाथ कर्म में लगें रहें।

इहलोक या परलोक में पुरस्कार की प्रत्याशा से ईश्‍वर से प्रेम करना बुरी बात नहीं, पर केवल प्रेम के लिए ही ईश्‍वर से प्रेम करना सब से अच्छा हैं, और उसके निकट यही प्रार्थना करनी उचित हैं, 'हे भगवन्, मुझे न तो संपत्ति चाहिए, न संतति, न विद्या। यदि तो सहस्रों बार जन्म-मृत्यु के तक्र में पडूँगा; पर हे प्रभो, केवल इतना ही दे कि मैं फल की आशा छोड़कर तेरी भक्‍ति करूँ, केवल प्रेम के लिए ही तुझ पर मेरा निःस्वार्थ प्रेम हो।' – शिक्षाष्‍टक ॥४॥ 

श्रीकृष्ण के एक शिष्य युधिष्ठिर इस समय सम्राट् थे। उनके शत्रुओं ने उन्हें राजसिंहासन से च्युत कर दिया था और उन्हें अपनी सम्राज्ञी के साथ हिमालय के जंगलों में आश्रय लेना पड़ा था। वहाँ एक दिन सम्राज्ञी ने उनसे प्रश्‍न किया, "मनुष्यों में सर्वोपरि पुण्यवान होते हुए भी आपको इतना दुःख क्यों सहना पड़ता हैं?" 

युधिष्ठिर ने उत्तर दिया, "महारानी, देखो, यह हिमालय कैसा भव्य और सुंदर हैं। मैं इससे प्रेम करता हूँ। यह मुझे कुछ नहीं देता;  पर मेरा स्वभाव ही ऐसा हैं कि मैं भव्य और सुंदर वस्तु से प्रेम करता हूँ और इसी कारण मैं उससे प्रेम करता हूँ। उसी प्रकार मैं ईश्‍वर से प्रेम करता हूँ। उस अखिल सौंदर्य, समस्त सुषमा का मूल हैं। वही एक ऐसा पात्र हैं, जिससे प्रेम करना चाहिए। उससे प्रेम करना मेरा स्वभाव हैं और इसीलिए मैं उससे प्रेम करता हूँ। मैं किसी बात के लिए उससे प्रार्थना नहीं करता, मैं उससे कोई वस्तु नहीं माँगता। उसकी जहाँ इच्छा हो, मुझे रखें। मैं तो सब अवस्थाओं में केवल प्रेम ही उस पर प्रेम करना चाहता हूँ, मैं प्रेम में सौदा नहीं कर सकता।" –महाभारत, वनपर्व ॥३१.२.५॥

वेद कहते हैं कि आत्मा  दिव्यस्वरूप हैं, वह केवल पंचभूतों के बंधन में बँध गयी हैं और उन बंधनों के टूटने पर वह अपने पूर्णत्व को प्राप्त कर लेगी। इस अवस्था का नाम मुक्‍ति हैं, जिसका अर्थ हैं स्वाधीनता – अपूर्णता के बंधन से छुटकारा, जन्म-मृत्यु से छुटकारा।

और यह बंधन केवल ईश्‍वर की दया से ही टूट सकता हैं और वह दया पवित्र लोगों को ही प्राप्त होती हैं। अतएव पवित्रता ही उसके अनुग्रह की प्राप्ति का उपाय हैं। उसकी दया किस प्रकार काम करती हैं? वह पवित्र हृदय में अपने को प्रकाशित करता हैं। पवित्र और निर्मल मनुष्य इसी जीवन में ईश्‍वर दर्शन प्राप्‍त कर कृतार्थ हो जाता हैं। 'तब उसकी समस्त कुटिलता नष्‍ट हो जाती हैं, सारे संदेह दूर हो जाते हैं।' –मुण्डकोपनिषद् ॥२.२.८॥ 

तब वह कार्य-कारण के भयावह नियम के हाथ खिलौना नहीं रह जाता। यही हिंदू धर्म का मूलभूत सिद्धांत हैं – यही उसका अत्संत मार्मिक भाव हैं। हिंदू शब्दों और सिद्धांतों के जाल में जीना नहीं चाहता। यदि इन साधारण इंद्रिय-संवेद्‌य विषयों के परे और भी कोई सत्ताएँ हैं, तो वह उनका प्रत्यक्ष अनुभव करना चाहता हैं। यदि उसमें कोई आत्मा हैं, जो जड़ वस्तु नहीं हैं, यदि कोई दयामय सर्वव्यापी विश्‍वात्मा हैं, तो वह उसका साक्षात्कार करेगा। वह उसे अवश्य देखेगा और मात्र उसी  से समस्त शंकाएँ दूर होंगी। अतः हिंदू ऋषि आत्मा के विषय में, ईश्‍वर के विषय में यही सर्वोत्तम प्रमाण देता हैं : ' मैंने  आत्मा का दर्शन किया हैं; मैंने ईश्‍वर का दर्शन किया हैं।' और यही पूर्णत्व की एकमात्र शर्त हैं। हिंदू धर्म भिन्न-भिन्न मत-मतांतरों या सिद्धांतों पर विश्‍वास करने के लिए संघर्ष और प्रयत्‍न में निहित नहीं हैं, वरन् वह साक्षात्कार हैं, वह केवल विश्‍वास कर लेना नहीं है, वह होना और बनना हैं।

इस प्रकार हिंदुओं की सारी साधना-प्रणाली का लक्ष्य हैं – सतत अध्यवसाय द्वारा पूर्ण बन जाना, दिव्य  बन जाना, ईश्‍वर को प्राप्‍त करना और उसके दर्शन कर लेना, उस स्वर्गस्थ पिता के समान पूर्ण जाना – हिंदुओं का धर्म हैं।

और जब मनुष्य पूर्णत्व को प्राप्‍त कर लेता हैं, तब क्या होता हैं? तब वह असीम परमानंद का जीवन व्यतीत करता हैं। जिस प्रकार एकमात्र वस्तु में मनुष्य को सुख पाना चाहिए, उसे अर्थात् ईश्‍वर को पाकर वह परम तथा असीम आनंद का उपभोग करता हैं और ईश्‍वर के साथ भी परमानंद का आस्वादन करता हैं।

यहाँ तक सभी हिंदू एकमत हैं। भारत के विविध सम्प्रदायों का यह सामान्य धर्म हैं। परंतु पूर्ण निरपेक्ष होता हैं, और निरपेक्ष दो या तीन नहीं हो सकता। उसमें कोई गुण नहीं हो सकता, वह व्यक्‍ति नहीं हो सकता। अतः जब आत्मा पूर्ण और निरपेक्ष हो जाती हैं, और वह ईश्‍वर के केवल अपने स्वरूप की पूर्णता, सत्यता और सत्ता के रूप में – परम सत्, परम चित्, परम आनंद के रूप में प्रत्यक्ष करती हैं। इसी साक्षात्कार के विषय में हम बारंबार पढ़ा करते हैं कि उसमें मनुष्य अपने व्यक्‍तित्व को खोकर जड़ता प्राप्त करता हैं या पत्थर के समान बन जाता हैं।

'जिन्हें चोट कभी नहीं लगी हैं, वे ही चोट के दाग की ओर हँसी की दृष्‍टि से देखते है।' मैं आपको बताता हूँ कि ऐसी कोई बात नहीं होती। यदि इस एक क्षुद्र शरीर की चेतना से इतना आनंद होता हैं, तो दो शरीरों की चेतना का आनंद अधिक होना चाहिए,और उसी प्रकार क्रमशः अनेक शरीरों की चेतना के साथ आनंद की मात्रा भी अधिकाधिक बढ़नी चाहिए, और विश्‍व-चेतना का बोध होने पर आनंद की परम अवस्था प्राप्‍त हो जाएगी।

अतः उस असीम विश्‍व-व्यक्‍तित्व की प्राप्ति के लिए इस कारास्वरूप दुःखमय क्षुद्र व्यक्‍तित्व का अंत होना ही चाहिए। जब मैं प्राण स्वरूप से एक हो जाऊँगा, तभी मृत्यु के हाथ से मेरा छुटकारा हो सकता हैं; जब मैं आनंद-स्वरूप हो जाऊँगा, तभी दुःख का अंत हो सकता हैं; जब मैं ज्ञानस्वरूप हो जाऊँगा, तभी सब अज्ञान का अंत हो सकता हैं, और यह अनिवार्य वैज्ञानिक निष्कर्ष भी हैं। विज्ञान ने मेरे निकट यह सिद्ध कर दिया हैं कि हमारा यह भौतिक व्यक्तित्व भ्रम मात्र हैं, वास्तव में मेरा यह शरीर एक अविच्छन्न जड़सागर में एक क्षुद्र सदा परिवर्तित होता रहने वाला पिंड हैं, और मेरे दूसरे पक्ष – आत्मा – के संबंध में अद्वैत ही अनिवार्य निष्कर्ष हैं।

विज्ञान  एकत्व की खोज के सिवा और कुछ नहीं हैं। ज्यों ही कोई विज्ञान पूर्ण एकता तक पहुँच जाएगी, त्यों ही उसकी प्रगति रूक जाएगी; क्योंकि तब वह अपने लक्ष्य को प्राप्‍त कर लेगा। उदाहरणार्थ, रसायनशास्‍त्र यदि एक बार उस मूलतत्त्व का पता लगा ले, जिससे और सब द्रव्य बन सकते हैं, तो फिर वह आगे नहीं बढ़ सकेगा। भौतिक शास्त्र जब उस मूल शक्‍ति का पता लगा लेगा, अन्य शक्‍तियाँ जिसकी अभिव्यक्‍ति हैं, तब वह रुक जाएगा। वैसे ही, धर्मशास्‍त्र भी उस समय पूर्णता को  प्राप्त कर लेगा, जब वह उसको खोज लेगा, जो इस मृत्यु के उस लोक में एकमात्र जीवन हैं, जो इस परिवर्तनशील जगत् का शाश्‍वत आधार हैं, जो एकमात्र परमात्मा हैं, अन्य सब आत्माएँ जिसकी प्रतीयमान अभिव्यक्‍तियाँ हैं। इस प्रकार अनेकता और द्‌वैत में से होते हुए इस परम अद्वैत की प्राप्‍ति होती हैं।  धर्म इससे आगे नहीं जा सकता। यही समस्त विज्ञानों का चरम लक्ष्य हैं।

समग्र विज्ञान अंततः इसी निष्कर्ष पर अनिवार्यतः पहुँचेंगे। आज विज्ञान का शब्द अभिव्यक्‍ति हैं, सृष्‍टि नहीं;  और हिंदू को यह देखकर बड़ी प्रसन्नता हैं कि जिसको वह अपने अंतस्तल में इतने युगों से महत्त्व देता रहा हैं, अब उसी की शिक्षा अधिक सशक्‍त भाषा में विज्ञान के नूतनतम निष्कर्षों के अतिरिक्‍त प्रकाश में दी जा रही हैं।

अब हम दर्शन की अभीप्साओं से उतरकर ज्ञानरहित लोगों के धर्म की ओर आते हैं। यह मैं प्रारंभ में ही आप को बता देना चाहता हूँ कि भारतवर्ष में अनेकेश्वरवाद नहीं है। प्रत्येक मंदिर में यदि कोई खड़ा होकर सुने, तो यही पाएगा कि भक्‍तगण सर्वव्यापित्व आदि ईश्‍वर के सभी गुणों का आरोप उन मूर्तियों में करते हैं। यह अनेकेश्वरवाद नहीं हैं, और न एकदेववाद से ही इस स्थिति की व्याख्या हो सकती हैं। 'गुलाब को चाहे दूसरा कोई भी नाम क्यों न दे दिया जाए, पर वह सुगंधि तो वैसी ही मधुर देता  रहेगा।' नाम ही व्याख्या नहीं होती।

बचपन की एक बात मुझे यहाँ याद आती हैं। एक ईसाई पादरी कुछ मनुष्यों की भीड़ जमा करके धर्मोपदेश कर रहा था। बहुतेरी मजेदार बातों के साथ वह पादरी यह भी कह गया, "अगर मैं तुम्हारी देवमूर्ति को एक डंडा लगाऊँ, तो वह मेरा क्या कर सकती हैं?"  

एक श्रोता ने चट चुभता सा जवाब दे डाला, "अगर मैं तुम्हारे ईश्‍वर को गाली दे दूँ, तो वह मेरा क्या कर सकता हैं?" 

पादरी बोला, "मरने के बाद वह तुम्हें सजा देगा।" हिंदू भी तनकर बोल उठा, " तुम मरोगे, तब ठीक उसी तरह हमारी देवमूर्ति भी तुम्हें दंड देगी।"

वृक्ष अपने फलों से जाना जाता हैं। जब मूर्तिपूजक कहे जानेवाले लोगों में ऐसे मनुष्यों को पाता हूँ, जिनकी नैतिकता, आध्यात्मिकता और प्रेम अपना सानी नहीं रखते, तब मैं रुक जाता हूँ और अपने से यही पूछता हूँ – 'क्या पाप से भी पवित्रता की उत्पत्ति हो सकती हैं?'

अंधविश्‍वास मनुष्य का महान् शत्रु हैं, पर धर्मांधता तो उससे भी बढ़कर हैं। ईसाई गिरजाघर क्यों जाता हैं? क्रूस क्यों पवित्र हैं? प्रार्थना के समय आकाश की ओर मुँह क्यों किया जाता हैं? कैथोलिक ईसाइयों के गिरजाघरों में इतनी मूर्तियाँ क्यों रहा करती हैं? प्रोटेस्टेंट ईसाइयों के मन में प्रार्थना के समय इतनी मूर्तियाँ क्यों रहा करती हैं? मेरे भाइयो! मन में किसी मूर्ति के आए कुछ सोच सकना उतना ही असंभव हैं, जितना श्‍वास लिये बिना जीवित रहना। साहचर्य के नियमानुसार भौतिक मूर्ति से मानसिक भावविशेष का उद्‌दीपन हो जाता हैं, अथवा मन में भावविशेष का उद्‌दीपन होने से तदनुरूप मूर्तिविशेष का भी आविर्भाव होता हैं। इसीलिए तो हिंदू आराधना के समय बाह्‍य प्रतीक का उपयोग करता हैं। वह आपको बतलाएगा कि यह बाह्‍य प्रतीक उसके मन को ध्यान के विषय  परमेश्‍वर में एकाग्रता से स्थिर रखने में सहायता देता हैं। वह भी यह बात उतनी ही अच्छी तरह से जानता हैं, जितना  आप जानते हैं कि वह मूर्ति न तो ईश्‍वर ही हैं और न सर्वव्यापी ही। और सच पूछिए तो दुनिया के लोग 'सर्वव्यापीत्व' का क्या अर्थ समझते हैं?  वह तो केवल एक शब्द या प्रतीक मात्र हैं। क्या परमेश्‍वर का भी कोई क्षेत्रफल हैं? यदि नहीं, तो जिस समय हम सर्वव्यापी शब्द का उच्चारण करते हैं, उस समय विस्तृत आकाश या देश की ही कल्पना करने के सिवा हम और क्या करते हैं?

अपनी मानसिक संरचना के नियमानुसार, हमें किसी प्रकार अपनी अनंतता की भावना को नील आकाश या अपार समुद्र की कल्पना से संबद्ध करना पड़ता हैं; उसी तरह हम पवित्रता के भाव को अपने स्वभावनुसार गिरजाघर या मसजिद या क्रास से जोड़ लेते हैं। हिंदू लोग पवित्रता, नित्यत्व, सर्वव्यापित्व आदि आदि भावों का संबंध विभिन्न मूर्तियों और रूपों से जोड़ते हैं? अंतर यह हैं कि जहाँ अन्य लोग अपना सारा जीवन किसी गिरजाघर  की मूर्ति की भक्‍ति में ही बिता देते हैं और उससे आगे नहीं बढ़ते, क्योंकि उनके लिए तो धर्म का अर्थ यही हैं कि कुछ विशिष्ट सिद्धांतों को वे अपनी बुद्धि द्वारा स्वीकृत कर लें और अपने मानव-बंधुओं की भलाई करते रहें – वहाँ एक हिंदू की सारी धर्म-भावना प्रत्यक्ष अनुभूति या आत्मसाक्षात्कार में केंद्रीभूत होती हैं। मनुष्य को ईश्‍वर का साक्षात्कार करके दिव्य बनना हैं। मूर्तियाँ, मंदिर, गिरजाघर या ग्रंथ तो धर्म-जीवन में केवल आघार या सहायक-मात्र हैं;  पर उसे उत्तरोतर उन्नति ही करनी चाहिए।

मनुष्य को कहीं पर रुकना नहीं चाहिए। शास्त्र का वाक्य हैं कि 'बाह्‍य पूजा या मूर्तिपूजा सबसे नीचे की अवस्था हैं; आगे बढने का प्रयास करते समय मानसिक प्रार्थना साधना की दूसरी अवस्था हैं, और सबसे उच्च अवस्था तो वह हैं, जब परमेश्वर का साक्षात्कार हो जाए।' – महानिर्वाणतंत्र ॥४.१२॥ 

देखिए, वही अनुरागी साधक, जो पहले मूर्ति के सामने प्रणत रहता था, अब क्या कह रहा हैं – 'सूर्य उस परमात्मा को प्रकाशित नहीं कर सकता, न चंद्रमा या तारागण ही; वह विद्युत प्रभा भी परमेश्वर को उद्भासित नहीं कर सकती, तब इस सामान्य अग्नि की बात ही क्या ! ये सभी इसी परमेश्वर के कारण प्रकाशित होते हैं।' – कठोपनिषद् ॥२.२.१५॥ 

पर वह किसी की मूर्ति को गाली नहीं देता और न उसकी पूजा को पाप ही बताता हैं। वह तो उसे जीवन की एक आवश्यक अवस्था जानकर उसको स्वीकार करता हैं। 'बालक ही मनुष्य का जनक हैं।' तो क्या किसी वृद्ध पुरुष का बचपन या युवावस्था को पाप या बुरा कहना उचित होगा?

यदि कोई मनुष्य अपने दिव्य स्वरूप को मूर्ति की सहायता से अनुभव कर सकता हैं, तो क्या उसे पाप कहना ठीक होगा? और जब वह अवस्था से परे पहुँच गया हैं, तब भी उसके लिए मूर्ति पूजा को भ्रमात्मक कहना उचित नहीं हैं। हिंदू की दृष्‍टि में मनुष्य भ्रम से सत्य की ओर नहीं जा रहा हैं, वह तो सत्य से सत्य की ओर, निम्न श्रेणी के सत्य से उच्च श्रेणी के सत्य की ओर अग्रसर हो रहा हैं। हिंदू के मतानुसार निम्न जड़-पूजावाद से लेकर सर्वोच्च अद्वैतवाद तक जितने धर्म हैं, वे सभी अपने जन्म तथा साहचर्य की अवस्था द्वारा निर्धारित होकर उस असीम के ज्ञान तथा उपलब्धि के निमित्त मानवात्मा के विविध प्रयत्न हैं,और यह प्रत्येक उन्नति की एक अवस्था को सूचित करता हैं। प्रत्येक जीव उस युवा गरुड़ पक्षी के समान हैं, जो धीरे-धीरे उँचा उ़ड़ता हुआ तथा अधिकाधिक शक्‍ति-संपादन करता हुआ अंत में उस भास्कर सूर्य तक पहुँच जाता हैं।

अनेकता में एकता प्रकृति का विधान हैं और हिंदुओं ने इसे स्वीकार किया हैं। अन्य प्रत्येक धर्म में कुछ निर्दिष्‍ट मतवाद विधिबद्ध कर दिये गये हैं और सारे समाज को उन्हें मानना अनिवार्य कर दिया जाता हैं। वह समाज के समाने केवल एक कोट रख देता हैं, जो जैक, जॉन और हेनरी, सभी को ठीक होना चाहिए। यदि जॉन या हेनरी के शरीर में ठीक नहीं आता, तो उसे अपना तन ढँकने के लिए बिना कोट के ही रहना होगा। हिंदुओं मे यह जान लिया हैं कि निरपेक्ष ब्रह्मतत्त्व का साक्षात्कार, चिंतन या वर्णन सापेक्ष के सहारे ही हो सकता हैं, और मूर्तियाँ, क्रूस या नवोदित चंद्र केवल विभिन्न प्रतीक हैं, वे मानो बहुत सी खूँटियाँ हैं, जिनमें धार्मिक भावनाएँ लटकायी जाती हैं। ऐसा नहीं हैं कि इन प्रतीकों की आवश्यकता हर एक के लिए हो, किंतु जिनको अपने लिए इन प्रतीकों की सहायता की आवश्यकता नहीं हैं, उन्हें यह कहने का अधिकार नहीं हैं कि वे गलत हैं। हिंदू धर्म में वे अनिवार्य नहीं हैं।

एक बात आपको अवश्य बतला दूँ। भारतवर्ष में मूर्ति पूजा कोई जघन्य बात नहीं हैं। वह व्यभिचार की जननी नहीं हैं। वरन् वह अविकसित मन के लिए उच्च आध्यात्मिक भाव को ग्रहण करने का उपाय हैं। अवश्य, हिंदुओं के बहुतेरे दोष हैं, उनके कुछ अपने अपवाद हैं, पर यह ध्यान रखिए कि उनके दोष अपने शरीर को ही उत्पीड़ित करने तक सीमित हैं, वे कभी अपने पड़ोसियों का गला नहीं काटने जाते। एक हिंदू धर्मांध भले ही चिता पर अपने आप के जला डाले, पर वह विधर्मियों को जलाने के लिए 'इन्क्विजिशन' की अग्नि कभी भी प्रज्वलित नहीं करेगा। और इस बात के लिए उससे अधिक दोषी नहीं ठहराया जा सकता, जितना डाइनों को जलाने का दोष ईसाई धर्म पर मढ़ा जा सकता हैं। 

अतः हिंदुओं की दृष्‍टि में समस्त धर्मजगत् भिन्न-भिन्न रुचिवाले स्त्री-पुरुषों की, विभिन्न अवस्थाओं एवं परिस्थितियों में से होते हुए एक ही लक्ष्य की ओर यात्रा हैं, प्रगति हैं। प्रत्येक धर्म जड़भावापन्न मानव से एक ईश्‍वर का उद्‌भव कर रहा हैं, और वही ईश्‍वर उन सब का प्रेरक हैं। तो फिर इतने परस्पर विरोध क्यों हैं ?  हिंदुओं का कहना हैं कि ये विरोध केवल आभासी हैं। उनकी उत्पत्ति सत्य के द्वारा भिन्न अवस्थाओं और प्रकृतियों के अनुरूप अपना समायोजन करते समय होती हैं।

वही एक ज्योति भिन्न-भिन्न रंग के काँच में से भिन्न-भिन्न रूप से प्रकट  होती हैं। समायोजन के लिए इस प्रकार की अल्प विविधता आवश्यक हैं। परंतु प्रत्येक के अंतस्तल में उसी सत्य का राज हैं। ईश्‍वर ने अपने कृष्णावतार में हिंदुओं को यह उपदेश दिया हैं, 'प्रत्येक धर्म में मैं, मोती की माला में सूत्र की तरह पिरोया हुआ हूँ।' – गीता ॥७.७॥ 

'जहाँ भी तुम्हें मानवसृष्‍टि को उन्नत बनानेवाली और पावन करनेवाली अतिशय पवित्रता और असाधारण शक्‍ति दिखाई दे, तो जान लो कि वह मेरे तेज के अंश से ही उत्पन्न हुआ हैं।' –गीता ॥१०.४१॥ 

और इस शिक्षा का परिणाम क्या हुआ? सारे संसार को मेरी चुनौती  हैं कि वह समग्र संस्कृत दर्शनशास्‍त्र  में मुझे एक ऐसी उक्‍ति दिखा दे, जिसमें यह बताया गया हो कि केवल हिंदुओं का ही उद्धार होगा और दूसरों का नहीं। 

व्यास कहते हैं, 'हमारी जाति और सम्प्रदाय की सीमा के बाहर भी पूर्णत्व तक पहुँचे हुए मनुष्य हैं।' –वेदांतसूत्र ॥३.४.३६॥ 

एक बात और हैं। ईश्‍वर में ही अपने सभी भावों को केंद्रित करनेवाला हिंदू अज्ञेयवादी बौद्‌ध और निरीश्‍वरवादी जैन धर्म पर कैसे श्रद्‍धा रख सकता हैं?

यद्‌यपि बौद्ध और जैन ईश्‍वर पर निर्भर नहीं रहते. तथापि उनके धर्म की पूरी शक्ति प्रत्येक धर्म के महान् केंद्रिय सत्य – मनुष्य में ईश्‍वरत्व – के विकास की ओर उन्मुख हैं। उन्होंने पिता को भले न देखा हो, पर पुत्र को अवश्य देखा हैं। और जिसने पुत्र को देख लिया, उसने पिता को भी देख लिया।

भाइयों!  हिंदुओं के धार्मिक विचारों की यहीं संक्षिप्त रूपरेखा हैं। हो सकता हैं कि हिंदू अपनी सभी योजनाओं की कार्यांवित करने में असफल रहा हो, पर यदि कभी कोई सार्वभौमिक धर्म होना हैं, तो वह किसी देश या काल से सीमाबद्ध नहीं होगा, वह उस असीम ईश्वर के सदृश ही असीम होगा, जिसका वह उपदेश देगा; जिसका सूर्य श्रीकृष्ण और ईसा के अनुयायियों पर, संतों पर और पापियों पर समान रूप से प्रकाश विकीर्ण करेगा, जो न तो ब्राह्मण होगा, न बौद्ध, न ईसाई और न इस्लाम, वरन् इन सब की समष्टि होगा, किंतु फिर भी जिसमें विकास के लिए अनंत अवकाश होगा; जो इतना उदार होगा कि पशुओं के स्तर से सिंचित उन्नत निम्नतम घृणित जंगली मनुष्य से लेकर अपने हृदय और मस्तिष्क के गुणों के कारण मानवता से इतना ऊपर उठ गये हैं कि उच्चतम मनुष्य तक को, जिसके प्रति सारा समाज श्रद्धानत हो जाता हैं और लोग जिसके मनुष्य होने में संदेह करते हैं, अपनी बाहुओं से आलिंगन कर सके और उनमें सब को स्थान दे सके। धर्म ऐसा होगा, जिसकी नीति में  उत्पीड़ित या असहिष्णुता का स्थान नहीं होगा;  वह प्रत्येक स्‍त्री और पुरुष में दिव्यता का स्वीकार करेगा और उसका सम्पूर्ण बल और सामर्थ्य मानवता को अपनी सच्ची दिव्य प्रकृति का साक्षात्कार करने के किए सहायता देने में ही केंद्रित होगा।

आप ऐसा ही धर्म सामने रखिए, और सारे राष्ट्र आपके अनुयायी बन जाएंगे। सम्राट अशोक की परिषद बौद्ध परिषद थी। अकबर की परिषद अधिक उपयुक्त होती हुई भी, केवल बैठक की ही गोष्ठी थी। किंतु पृथ्वी के कोने-कोने में यह घोषणा करने का गौरव अमेरिका के लिए ही सुरक्षित था कि 'प्रत्येक धर्म में ईश्वर हैं।'

वह, जो हिंदूओं का ब्रह्म, पारसियों का अहुर्मज्द, बौद्धो का बुद्ध, यहूदियों का जिहोवा और ईसाइयों का स्वर्गस्थ पिता हैं, आपको अपने उदार उद्देश्य को कार्यावित करने की शक्‍ति प्रदान करे !  नक्षत्र पूर्व गगन में उदित हुआ और कभी धुँधला और कभी देदीप्यमान होते हुए धीरे-धीरे पश्‍चिम की ओर यात्रा करते-करते उसने समस्त जगत की परिक्रमा कर डाली और अब फिर प्राची के क्षितिज में सहस्र गुनी अधिक ज्योति के साथ उदित हो रहा हैं!

ऐ स्वाधीनता की मातृभूमि कोलंबिया, तू धन्य हैं!  यह तेरा सौभाग्य हैं कि तूने अपने पड़ोसियों के रक्‍त से अपने हाथ कभी नहीं भिगोये, [2] तूने अपने पड़ोसियों का सर्वस्व हरण कर सहज में ही धनी और संपन्न होने की चेष्‍टा नहीं की, अतएव समन्वय की ध्वजा फहराते हुए सभ्यता की अग्रणी होकर चलने का सौभाग्य तेरा ही था।

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