विश्व धर्म महासभा, शिकागो, 26 सितंबर 1893
मैं बौद्ध धर्मावलंबी नहीं हूँ, जैसा कि आप लोगों ने सुना हैं, पर फिर भी मैं बौद्ध हूँ। यदि चीन, जापान अथवा सीलोन उस महान तथागत के उपदेशों का अनुसरण करते हैं, तो भारत वर्ष उन्हें पृथ्वी पर ईश्वर का अवतार मानकर उनकी पूजा करता हैं। आपने अभी-अभी सुना कि मैं बौद्ध धर्म की आलोचना करने वाला हूँ, परंतु उससे आपको केवल इतना ही समझना चाहिए। जिनको मैं इस पृथ्वी पर ईश्वर का अवतार मानता हूँ, उनकी आलोचना ! मुझसे यह संभव नहीं। परन्तु बुद्ध के विषय में हमारी धारणा यह हैं कि उनके शिष्यों ने उनकी शिक्षाओं को ठीक-ठीक नहीं समझा। हिंदू धर्म (हिंदू धर्म से मेरा तात्पर्य वैदिक धर्म हैं) और जो आजकल बौद्ध धर्म कहलाता हैं, उनमें आपस में वैसा ही संबंध हैं, जैसा यहूदी तथा ईसाई धर्मों में। ईसा मसीह यहूदी थे और शाक्य मुनि हिंदू। यहूदियों ने ईसा को केवल अस्वीकार ही नहीं किया, उन्हें सूली पर भी चढ़ा दिया, हिंदुओं ने शाक्य मुनि को ईश्वर के रूप में ग्रहण किया हैं और उनकी पूजा करते हैं। किंतु प्रचलित बौद्ध धर्म में तथा बुद्धदेव की शिक्षाओं में जो वास्तविक भेद हम हिंदू लोग दिखलाना चाहते हैं, वह विशेषतः यह हैं कि शाक्य मुनि कोई नई शिक्षा देने के लिए अवतीर्ण नहीं हुए थे। वे भी ईसा के समान धर्म की पूर्णता के लिए आए थे, उसका विनाश करने नहीं। अंतर इतना हैं कि जहाँ ईसा को प्राचीन यहूदी नहीं समझ पाये। जिस प्रकार यहूदी प्राचीन व्यवस्थान की निष्पत्ति नहीं समझ सके, उसी प्रकार बौद्ध भी हिंदू धर्म के सत्यों की निष्पत्ति को नहीं समझ पाये। मैं यह बात फिर से दुहराना चाहता हूँ कि शाक्य मुनि ध्वंस करने नहीं आए थे, वरन् वे हिंदू धर्म की निष्पत्ति थे, उसकी तार्किक परिणति और उसके युक्तिसंगत विकास थे।
हिंदू धर्म के दो भाग हैं – कर्मकांड और ज्ञानकांड। ज्ञानकांड का विशेष अध्ययन संन्यासी लोग करते हैं।
ज्ञानकांड में जाति भेद नहीं हैं। भारतवर्ष में उच्च अथवा नीच जाति के लोग संन्यासी हो सकते हैं, और तब दोनों जातियाँ समान हो जाती हैं। धर्म में जाति भेद नहीं हैं; जाति तो एक सामाजिक संस्था मात्र हैं। शाक्य मुनि स्वयं संन्यासी थे, और यह उनकी ही गरिमा हैं कि उनका हृदय इतना विशाल था कि उन्होंने अप्राप्य वेदों से सत्यों को निकाल कर उनको समस्त संसार में विकीर्ण कर दिया। इस जगत में सब से पहले वे ही ऐसे हुए, जिन्होंने धर्म-प्रचार की प्रथा चलायी – इतना ही नहीं, वरन् मनुष्य को दूसरे धर्म से अपने धर्म में दीक्षित करने का विचार भी सब से पहले उन्हीं के मन में उदित हुआ।
सर्वभूतों के प्रति, और विशेषकर अज्ञानी तथा दीन जनों के प्रति अद्भुत सहानुभूति में ही तथागत का महान गौरव सन्निहित हैं। उनके कुछ शिष्य ब्राह्मण थे। बुद्ध के धर्मोपदेश के समय संस्कृत भारत की जनभाषा नहीं रह गयी थी। वह उस समय केवल पंडितों के ग्रंथों की ही भाषा थी। बुद्धदेव के कुछ ब्राह्मण शिष्यों ने उनके उपदेशों का अनुवाद संस्कृत भाषा में करना चाहा था, पर बुद्धदेव उनसे सदा यही कहते – 'मैं दरिद्र और साधारण जनों के लिए आया हूँ, अतः जनभाषा में ही मुझे बोलने दो।' और इसी कारण उनके अधिकांश उपदेश अब तक भारत की तत्कालीन लोकभाषा में पायें जाते हैं।
दर्शनशास्त्र का स्थान चाहे जो भी दो, तत्त्व ज्ञान का स्थान चाहे जो भी हो, पर जब तक इस लोक में मृत्यु मान की वस्तु हैं, जब तक मानव हृदय में दुर्बलता जैसी वस्तु हैं, जब तक मनुष्य के अंतःकरण से उसका दुर्बलता जनित करूण क्रंदन बाहर निकलता हैं, तब तक इस संसार में ईश्वर में विश्वास कायम रहेगा।
जहाँ तक दर्शन की बात हैं, तथागत के शिष्यों ने वेदों की सनातन चट्टानों पर बहुत हाथ-पैर पटके, पर वे उसे तोड़ न सके और दूसरी ओर उन्होंने जनता के बीच से उस सनातन परमेश्वर को उठा लिया, जिसमें हर नर-नारी इतने अनुराग से आश्रय लेता हैं। फल यह हुआ कि बौद्ध धर्म को भारतवर्ष में स्वाभाविक मृत्यु प्राप्त करनी पड़ी और आज इस धर्म की जन्मभूमि भारत में अपने को बौद्ध कहने वाली एक भी स्त्री या पुरुष नहीं हैं।
किंतु इसके साथ ही ब्राह्मण धर्म ने भी कुछ खोया – समाज-सुधार का वह उत्साह, प्राणिमात्र के प्रति वह आश्चर्यजनक सहानुभूति और करुणा, तथा वह अद्भुत रसायन, जिसे बौद्ध धर्म ने जन-जन को प्रदान किया था एवं जिसके फलस्वरूप भारतीय समाज इतना महान् हो गया कि तत्कालीन भारत के संबंध में लिखने वाले एक यूनानी इतिहासकार को यह लिखना पड़ा कि एक भी ऐसा हिंदू नहीं दिखाई देता, जो मिथ्या भाषण करता हो; एक भी ऐसी हिंदू नारी नहीं हैं, जो पतिव्रता न हो।
हिंदू धर्म बौद्ध धर्म के बिना नहीं रह सकता और न बौद्ध धर्म हिंदू धर्म के बिना ही। तब यह देखिए कि हमारे पारस्परिक अलगाव ने यह स्पष्ट रूप से प्रकट कर दिया कि बौद्ध, ब्राह्मणों के दर्शन और मस्तिष्क के बिना नहीं ठहर सकते, और न ब्राह्मण बौद्धों के विशाल हृदय के बिना। बौद्ध और ब्राह्मण के बीच यह अलगाव भारतवर्ष के पतन का कारण हैं। यही कारण हैं कि आज भारत में तीस करोड़ भिखमंगे निवास करते हैं, और वह एक सहस्र वर्षों से विजेताओं का दास बना हुआ हैं। अतः आइए, हम ब्राह्मणों की इस अपूर्व मेधा के साथ तथागत के हृदय, सज्जनता और अद्भुत लोक हितकारी शक्ति को मिला दें।
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